- आज हम आपको जिस अपराध के बारे में बताने वाले हैं, वो भारत में अब तक हुए किसी भी आर्थिक अपराध से बहुत बड़ा है.
- वो इतना बड़ा घोटाला (Scam) है कि अब तक हुए लगभग सारे घोटालों का अमाउंट जोड़ लिया जाए तो भी वो इस घोटाले के बराबर नहीं हो सकता.
- ये इतना बड़ा भ्रष्टाचार (corruption) है कि दूसरा कोई भी भ्रष्टाचार (corruption) इसके सामने आपको बोना लगेगा.
- ये इतनी बड़ी ठगी है कि इसके शिकार हुए लोगों की संख्या कुल ठगी के पीड़ितों की संख्या से कहीं ज्यादा है और ये लगातार बड़ रही है.
इसके बावजूद सबसे बड़ी बात ये है कि ये सबसे बड़ा आर्थिक अपराध भारतीय क़ानून के हिसाब से अपराध है ही नहीं, और जब वो कानूनन अपराध है ही नहीं तो उसके लिए सजा का प्रावधान तो हो ही नहीं सकता.
आज हम नैतिक आधार पर जिस अपराध की बात कर रहे हैं उसका शिकार हर कोई है, हम भी उसका शिकार हुए हैं और आप भी कभी न कभी उसका शिकार जरूर हुए होंगे, और अभी तक जो लोग इससे बचे हुए हैं वो बहुत भाग्यशाली है लेकिन भविष्य में भी ऐसा ही हो ये नहीं कहा जा सकता.
क्या है ये सबसे बड़ा घोटाला, सबसे बड़ा भ्रष्टाचार ?
जब हम खुले बाज़ार से कोई चीज खरीदते हैं तो मोल भाव करते हैं, यहाँ तक कि जब हम 50 रूपए की सब्जी खरीदते है तो सब्जी वाले से बोलते हैं भैया 40 रूपए लगा लो. जब हम किसी शोपिंग माल से खरीदी करते हैं तो वहां पर भी एक फिक्स डिस्काउंट होता है.
लेकिन क्या कभी आपने हॉस्पिटल (Hospital) में भर्ती अपने किसी मरीज के लिए दवाइयाँ खरीदते समय बोला है कि-
“भैया कीमत ठीक ठीक लगा लो”
नहीं ! ऐसा हममे से किसी ने भी, कभी नहीं बोला होगा.
वहां हम यह नहीं कह सकते कि सो रुपए की दवा है तो 40 ले लो, लेकिन हमें ऐसा कहना चाहिए, जरूर कहना चाहिए.
आपको हमारी ये बात अजीब लग रही होगी पर हम बड़ी गंभीरता से आपसे कह रहे हैं कि आपको ऐसा ही करना चाहिए और हम ऐसा क्यों कह रहे हैं आपको आगे बताएँगे पूरे प्रमाण के साथ.
मेरा नाम है मनोज मनु और आज मैं आपसे अपना एक अनुभव साझा कर रहा हूँ, जिसे देखने के बाद आप जब कभी किसी हॉस्पिटल में किसी अपने के लिए दवाइयां खरीदेंगे तो जरूर बोलेंगे.
“भैया 8000 रूपए का बिल है 4000 लगा लो ! अच्छा चलो 4200 लेलो”
दरअसल कहानी ये है कि हाल ही में मेरी एक बहुत नजदीकी रिश्तेदार बीमार थी, वे मध्यप्रदेश के गुना जिले में एक जगह है राघोगढ़ वहां रहती हैं. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का गृह नगर है राघोगढ़.
महामारी के चलते उन्हें बाहर ले जाना खतरनाक हो सकता था इसलिए पिछले तीन महीनो से उनका इलाज गुना में ही चल रहा था लेकिन आराम नहीं हुआ. उनको पेट से सम्बंधित कुछ समस्या बताई गयी थी.
जून में जब लॉक डाउन खुला और हालात थोडे ठीक हुए तो हमने उन्हें भोपाल जहाँ मैं रहता हूँ वहां दिखाने का फैसला किया.
यहां एक हॉस्पिटल (Hospital) है गैस्ट्रो केयर अस्पताल (Gastro Care Hospital) ! जिसके ओनर है डॉक्टर संजय कुमार 12 जून के दिन मैंने उनके हॉस्पिटल में अपॉइंटमेंट के लिए कॉल किया तो 6 दिन बाद यानि 18 जून का अपॉइंटमेंट हमें मिला.
इस दिन जब हम लोग उन्हें लेकर हॉस्पिटल (Gastro Care Hospital) पहुंचे तो वहां पहला नंबर ही चल रहा था और हमें आठ नंबर मिला था. लेकिन माताजी की उम्र और हालत देखते हुए हमारे आग्रह किए बिना ही डॉक्टर साहब ने पहले पेशेंट को देखने के बाद ही दूसरे केबिन में बुलाकर उन्हें देखा, जरूरी जांच लिखी और उन्हें एडमिट करने के लिए बोल दिया. कुल मिलाकर उनका इलाज शुरू हो गया.
अगर आपका कोई अपना कभी हॉस्पिटल में एडमिट हुआ है तो आपको जरूर पता होगा कि हॉस्पिटल का पहला दिन कितना भारी होता है, एक तो हमारा अपना कोई पीड़ा में होता है इसलिए और दूसरा यह कि इस दिन पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है.
हम सब जानते हैं कि पैसा कमाना कितना मुश्किल है, जब हम कोई काम धंधा करते हैं या जॉब करते हैं तो कितना मुश्किल होता है पैसा हाथ में आना लेकिन हॉस्पिटल में वही मुश्किल से कमाया हुआ पैसा हाथ से बालू की तरह निकल जाता है.
फिर भी हम सभी अस्पताल में जितना पैसा मांगा जाता है उतना खर्च करते हैं. अगर किसी के पास पैसा नहीं होता तो वो उधार लेता है लेकिन इलाज तो करवाता ही है.
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अस्पताल में पहले दिन ही सबसे ज्यादा टेस्ट होते हैं, कुछ सर्जिकल आइटम्स भी खरीदे जाते हैं, इसी दिन सबसे ज्यादा दवाइयां लिखी जाती हैं. हॉस्पिटल में कुछ पैसा एडवांस के तौर पर भी जमा किया जाता है.
हमने भी वही सब किया, हमें भी दवाइयां लाने के लिए कहा गया. आजकल हर हॉस्पिटल का अपना मेडिकल स्टोर होता है सो यहां भी था. हमने दवा ली और हमारा जो पहला बिल बना वह था 8369 रुपए का. हमने अपनी जेब से इतने रुपए निकाले और देना चाहा तो पता चला कि हमें तो सिर्फ ₹4620 रूपए ही देना है.
क्या आपके साथ ऐसा कभी हुआ है कि आपने 8300 रुपए की दवाईयां खरीदी हो और किसी अस्पताल ने आपसे 4600 रुपए ही लिए हो ? शायद नहीं. हमारे साथ भी पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था.
अब यह बिल देखिए
दवाइयों की कुल कीमत 8369 रूपए जिसके नीचे लिखा है डिस्काउंट 3748 रूपए ! नेट अमाउंट है 4620 रूपए जिसका भुगतान हमें करने के लिए कहा गया. ऐसे हमारे पास और भी कई बिल है हमने 5 दिन एडमिट रहने के दौरान वहां से कई बार दवाइयां खरीदी और हर बिल पर हमें छूट मिली.
सबसे बड़ी बात ये थी कि ये डिस्काउंट हमें मांगने पर नहीं मिला था यह बिना मांगे हमारे बिना आग्रह किये पूरे सम्मान के साथ हमें दिया गया था. क्योंकि ये डिस्काउंट वहां उनके बिलिंग सॉफ्टवेयर में ही फीड कर दिया गया है और आप यह जानकर हैरान होंगे कि डिस्काउंट का प्रतिशत दो, चार या 10% नहीं है यह बहुत ज्यादा है. कुछ सर्जिकल और इंजेकटेबल्स में डिस्काउंट 91 % यानी ९१ प्रतिशत तक है और जितने भी पेशेंट वहां एडमिट हैं सब को इसका लाभ मिल रहा है.
अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि ऐसा क्यों ?
हम भी यही सोच रहे थे कि आखिर ऐसा क्यों ? तो हमने डॉक्टर साहब से सीधे पूछ लिया, क्योंकि इसका जवाब तो वही दे सकते थे, फिर उन्होंने हमें बताया कि क्यों उनके अस्पताल में इतना डिस्काउंट दिया जाता है.
उन्होंने हमें समझाया कि एमआरपी का खेल क्या होता है ?
एक उदाहरण के तौर पर उन्होंने हमें बताया कि एक इंजेक्शन 270 रूपए का आता है और उस पर एमआरपी आती है 1000 रूपए. उन्होंने कहा कि मेरा मन नहीं माना कि मैं वह 270 रूपए का वह इंजेक्शन अपने पेशेंट को 1000 रूपए में बेच दूं. मैं डॉक्टर हूं मुझे अपनी फीस और मेरे हॉस्पिटल की दूसरी सेवाओं का चार्ज मरीज से लेना है , 270 रुपए का इंजेक्शन 1000 में नहीं बेंचना.
ये बात तो हुई डॉ संजय कुमार के नैतिक मूल्यों की.
अब यहां सवाल ये है कि दूसरे ज्यादातर अस्पतालों के मालिकों ने क्यों अपना जमीर बेच दिया है ?
वे भी गेस्ट्रो केयर अस्पताल (Gastro Care Hospital) के डॉक्टर संजय कुमार की तरह ये क्यों नहीं कहते कि हमें भी अपनी सर्विसेस का पैसा ही मरीज से लेना है. वे क्यों नहीं कहते कि 270 रूपए का इंजेक्शन 1000 में हम नहीं बेचेगे.
दूसरा सवाल ये है कि आखिर दवा कंपनियों द्वारा इतनी एमआरपी लिखी ही क्यों जा रही है ? इन को किसने अधिकार दिया है दवाओं पर इतनी ज्यादा एमआरपी डालने का ?
और आखिर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारी सरकार हमारा स्वास्थ्य विभाग हमारे प्रधानमंत्री हमारे स्वास्थ्य मंत्री क्या कर रहे हैं ?
वे इस बात का सज्ञान क्यूँ नहीं लेते ?
क्या दवा कंपनियों द्वारा लिखी जा रही MRP पर अंकुश लगाना नोट बंदी या धारा ३७० हटाने से ज्यादा कठिन काम है ?
क्या इसे व्यवहार में लाना GST लागू करने से ज्यादा मुश्किल है ?
अगर नहीं तो फिर क्यों दवा कंपनियों को इतनी छूट दे रखी है ?
उन्हें इस बात को संज्ञान में लेना ही चाहिए और जल्दी से जल्दी एमआरपी पर अंकुश लगाना चाहिए.
जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक आपको और हमें अपनी आवाज उठानी ही पड़ेगी और ये इतना मुश्किल भी नहीं है. हम सबको बस इतना करना है कि अगर 270 रूपए का इंजेक्शन हमें 1000 रूपए में दिया जा रहा है तो हमें कहना है “भैया 300 का लगा लो चलो भैया 400 ले लेना”
इसके साथ ही एक काम और करना है और वो है इस story को शेयर करना
धन्यवाद,
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