जुर्म और सियासत का तालमेल: देश में किस कदर भयानक हैं हालात? | kanpur – News in Hindi

2498

[ad_1]

कुख्यात Gangster Vikas Dubey द्वारा Uttar Pradesh के Kanpur में पुलिसकर्मियों के हत्याकांड (Police Party Killing) को अंजाम देने के बाद बड़ा सवाल ये खड़ा हो रहा है कि Politics-Crime Nexus कितनी बड़ी समस्या है? चूंकि विकास दुबे के तार राजनीति से जुड़े होना साबित हो चुका है इसलिए यह विमर्श और भी ज़रूरी हो जाता है कि देश में क्या सियासत और जुर्म (Crime in Politics) एक ही सिक्के के दो पहलू हो चुके हैं? यह स्थिति कितनी गंभीर है और इससे कैसे निपटा जा सकता है?

आंकड़े परेशान करने वाले हैं क्योंकि राजनीति में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. राजनीति के लिए ‘स्वच्छता अभियान’ चलाए जाने की कोशिशें न्यायपालिका करती रही है, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि ये कोशिशें काफी और मज़बूत साबित नहीं हो सकी हैं. कुछ बिंदुओं में ये रोंगटे खड़े कर देने वाली तस्वीर साफ तौर पर देखें और जानें कि कैसे ‘गुंडाराज’ के चंगुल में फंसी राजनीति को ‘आत्मनिर्भर’ होने की ज़रूरत है.

बहुत भयानक है सियासत और जुर्म की सांठ-गांठ
पिछले कुछ दशकों में इस गठबंधन को लेकर कुछ चर्चाएं शुरू हुई हैं और लोगों का ध्यान इस पर गया है. अपराध और राजनीति की गिरोहबंदी का भंडाफोड़ करने और कैसे राजनीतिज्ञों और ब्यूरोक्रेट्स की मदद से अपराध का साम्राज्य फैलता है और कैसे ये लोकतंत्र और कानून को ठेंगा दिखाता है, इस बारे में 1993 में बनी एनएन वोहरा समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी.ये भी पढें:- क्या है चीन की ‘सलामी स्लाइसिंग’ रणनीति, जिससे सभी कर रहे हैं होशियार

vikas dubey history, vikas dubey politics, politics and crime, criminal politician, criminal case against legislator, विकास दुबे हिस्ट्री, विकास दुबे पॉलिटिक्स, पॉलिटिक्स और क्राइम, अपराधी नेता, क्रिमिनल केस वाले सांसद

न्यूज़18 क्रिएटिव/कार्टून.

इस रिपोर्ट को इतना ‘विस्फोटक’ बताया गया कि यह कभी संसद में चर्चा के लिए रखी ही नहीं गई. ओआरएफ के एक लेख में कहा गया कि गृह मंत्रालय ने इस रिपोर्ट को कहीं दबा दिया. हालिया सालों में भी कुछ रिपोर्ट्स और दस्तावेज़ इस विषय पर काबिले-गौर रहे हैं.

क्यों होता चला गया राजनीति का अपराधीकरण?

देश में अपराध के साये में होने वाले ‘स्वतंत्र और पारदर्शी चुनावों’ के विरोधाभास, पार्टियों का अपराधियों को टिकट देना और जनता का किसी प्रत्याशी के आपराधिक बैकग्राउंड को नज़रअंदाज़ करने जैसे मुद्दों पर मिलन वैष्णव की रिसर्च ‘When Crime Pays: Money and Muscle in Indian Politics’ बहुत से राज़ खोलती है.

अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए काम करने वाली वॉशिंग्टन बेस्ड एक संस्था के सीनियर फैलो रहे वैष्णव के मुताबिक 1980 और 90 के दशक में कांग्रेस के कमज़ोर होने, हाशिये की पार्टियों के मुख्यधारा में आने और कानून व्यवस्था के कमज़ोर हो जाने से राजनीति में अपराधीकरण होता गया.

क्या बता रहे हैं आंकड़े?
लोकसभा चुनाव 2014 में 21% ऐसे प्रत्याशी जीते, जिनके खिलाफ घोषित गंभीर आपराधिक मामल चल रहे थे. 2009 में ऐसे 17% प्रत्याशी जीते थे और 2004 में 12%. दूसरी तरफ, साल 2018 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में जो एफिडेविट दिया, उसके मुताबिक बिहार के चुने हुए जनप्रतिनि​धियों के खिलाफ सबसे ज़्यादा 249 केस पेंडिंग थे, जबकि केरल और पश्चिम बंगाल में क्रमश: 233 और 246. जनप्रतिनिधियों के खिलाफ सबसे ज़्यादा आपराधिक मामलों वाले राज्यों में दिल्ली, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक का नाम भी शुमार रहा.

vikas dubey history, vikas dubey politics, politics and crime, criminal politician, criminal case against legislator, विकास दुबे हिस्ट्री, विकास दुबे पॉलिटिक्स, पॉलिटिक्स और क्राइम, अपराधी नेता, क्रिमिनल केस वाले सांसद

न्यूज़18 क्रिएटिव/कार्टून.

‘साफ राजनीति’ के लिए आंदोलन करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी ADR के मुताबिक साल 2014 में राज्यों और केंद्र में कुल मिलाकर 1581 ऐसे विधि निर्माता थे, जिनके खिलाफ इस तरह के क्रिमिनल केस थे, जिनमें कम से कम 5 साल की सज़ा हो सकती थी.

भाजपा में सबसे ज़्यादा अपराधी? किस पार्टी में कितने?
2014 के आम चुनावों के नतीजों के विश्लेषण को लेकर ADR ने जो आंकड़े दिए, उनके मुताबिक भाजपा के 281 विजेता प्रत्याशियों में से 98 यानी 35 फीसदी विजेताओं के खिलाफ घोषित​ क्रिमिनल केस थे. इनमें से 63 के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, सांप्रदायिक दंगे भड़काना, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों का होना पाया गया था.

कांग्रेस के क्रिमिनल और गंभीर क्रिमिनल केस वाले प्रत्याशियों का आंकड़ा 18% और 7% था. इसी तरह, ये भी बताया गया कि जिन दस सांसदों के खिलाफ हत्या के मामले चल रहे थे, उनमें से 4 BJP के थे और एक एक सांसद कांग्रेस, एनसीपी, एलजेपी, राजेडी, स्वाभिमानी पक्ष और निर्दलीय था.

मौजूदा लोकसभा में अपराध का ग्राफ
साल 2019 के आम चुनाव के बाद लोकसभा में जो 539 सांसद पहुंचे थे, उनमें से 233 के खिलाफ घोषित क्रिमिनल केसों का होना पाया गया. खबरों में ये भी कहा गया कि इस लोकसभा में करीब आधे सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. बहरहाल, 2009 में सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामलों की तुलना में 2019 की लोकसभा में ऐसे सांसद 44 फीसदी ज़्यादा हो चुके ​हैं.

कैसे हुईं राजनीति की सफाई की कोशिशें?
सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं समय समय पर कदम उठाती रही हैं. मसलन, 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी चुनावी प्रत्याशियों को अपना आपराधिक ब्योरा देने के निर्देश दिए थे. वहीं, चुनाव आयोग को भी निर्देश दिए गए थे कि चुनाव क्षेत्र में जनता के सामने प्रत्याशियों का आपराधिक ब्योरा मिलना चाहिए. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने चुने गए जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों के एक साल के भीतर निपटारे के लिए केंद्र सरकार को फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाने की हिदायत भी दी थी.

कैसे नाकाफी रही हैं अब तक की कोशिशें?
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन पूरी तरह नहीं किया जाता रहा. मसलन, फास्ट ट्रैक कोर्ट की हिदायत के संबंध में 10 स्पेशल कोर्ट बनाए गए थे, जिनमें 1233 केस ट्रांसफर किए गए थे. लेकिन, यहां भी केस एक साल के भीतर नहीं सुलझे और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के दोषी पाए जाने की दर सिर्फ 6% रही. तो पहली बात, राजनीति से अपराध की सफाई के मामले में सरकारों का रवैया बेहद ढीला रहा है.

दूसरी बात है कि सियासत में जुर्म की पैठ को खत्म करने के लिए सिर्फ कोर्ट के स्तर का दखल काफी नहीं है. वैष्णव मानते हैं कि अदालतों की सीमा है, जिसके आगे वो जा नहीं सकतीं. तीसरी बात है, कि हमारा चुनाव आयोग बाहर से जो भी दिखे, अस्ल में काफी लाचार संस्था है. रिपोर्ट्स की मानें तो इसके पास राजनीतिक पार्टियों को मान्यता देने का अधिकार है, लेकिन समाप्त करने का नहीं.

vikas dubey history, vikas dubey politics, politics and crime, criminal politician, criminal case against legislator, विकास दुबे हिस्ट्री, विकास दुबे पॉलिटिक्स, पॉलिटिक्स और क्राइम, अपराधी नेता, क्रिमिनल केस वाले सांसद

न्यूज़18 क्रिएटिव/कार्टून.

राजनीतिक पार्टियों से सालाना हिसाब किताब लेने का अधिकार आयोग को है, लेकिन इलेक्टोरल बॉंड्स की व्यवस्था से अब पार्टियां सारा पैसा बताने के लिए बाध्य नहीं हैं. और रही बात जनता की तो भारत में वोटिंग छवि से ज़्यादा प्रभावित है, वास्तविक रिकॉर्ड्स से कम. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (CSDS) के संजय कुमार की मानें तो :

लोग जिस रूप में प्रत्याशी को पहचानते हैं, उसी के आधार पर वोट करते हैं. अगर किसी प्रत्याशी ने वोटरों के भले के लिए कुछ काम किया है, तो वोटर उसे प्राथमिकता देते हैं, भले ही उसका आपराधिक रिकॉर्ड कुछ भी हो.

तो क्या नहीं बदल सकती तस्वीर?
इस बारे में विशेषज्ञ भी एकमत नहीं हैं. सब ये तो मानते हैं कि ये एक लंबी प्रक्रिया है, लेकिन किस रास्ते से? इस पर कोई एकराय नहीं है. वैष्णव इसे भारतीय सरकारों की नाकामी मानते हैं ​जो देश को मूलभूत सेवा नहीं दे सकीं और देश में नेताओं के नाम पर ‘बाहुबली’ राज स्थापित होता गया. CSDS के कुमार मानते हैं कि सुधार और बदलाव की शुरूआत जनता की मांग और राजनीतिक पार्टियों की इच्छाशक्ति से ही संभव है.

ये भी पढें:-

कौन है वो लड़का जिसने कचरे से बनाए 600 ड्रोन, क्या DRDO ने दिया काम?

क्या है सदगुरु का ‘भैरव’, जो कोरोना के खिलाफ जंग में 5 करोड़ में बिका

वहीं, एक रिपोर्ट के मुताबिक ADR के प्रोफेसर जगदीप छोकर कहते हैं कि सिर्फ एक कानून बनाने की देर है. ‘सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में क्या 543 बेदाग नेता नहीं मिल सकते?’ छोकर के मुताबिक अपराधी चुने जाते हैं क्योंकि जनता के पास सही विकल्प नहीं होते. इन हालात का हल एक सख्त कानून में है, जिसके लिए सिर्फ इच्छाशक्ति चाहिए जो भारत की राजनीति में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ चला सके.

[ad_2]

Source link